Saturday 2 August 2014

नीर

कभी है यह निर्मल, निरभ्र, निर्झर, नटखट,
कभी खो जाता हो अकस्मात निश्चल, नीरव, निर्जल,

नदी बन कर बहता कल-कल,
तृप्त करता जन - जन कि क्षुधा बेकल,

सागर में भर जाता जैसे नीलम,
स्पर्श करता क्षितिज द्वारा नील गगन,

बह जाता नयन से हो निर्बल,
जैसे हो पावन गंगाजल,

प्रकृति के क्रोध का बनता माध्यम,
ले जाता जीवों का जीवन, भवन और आँगन,

धो देता कभी अस्थि के संग मानव पापों का भार,
गिरता धरा पर कभी बन रिमझिम बूँदों का दुलार,

देश विदेश कि सीमा से अपार,
यहां वहां बहता सनातन सदाबहार


0 comments:

Post a Comment

Thanks for your awesome comment! I always look forward to it.