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Monday, 6 April 2015
Sunday, 29 March 2015
ना सोचा है
किस ओर चलूं ना सोचा है,
किस ठोर थमु ना सोचा है,
चलते रहूँ या राह चुनूं,
मंज़िल कि तलाश करूँ,
या खड़ी रहूँ चौराहों पे,
किस ओर बढ़ूँ ना सोचा है |
आसमां को भर लूँ मुट्ठी में,
या छोड़ दूँ खुली हाथ कि लकीरों को,
ज़िद करूँ क्या लड़ने कि,
क्या हाल चुनूं ना सोचा है |
दिल तोड़ चलूँ या मन जोड़ चलूँ,
रुख मोड़ चलूँ या जग छोड़ चलूँ,
दो कदम चलूँ या दौड़ चलूँ,
या ख्वाब चुनूं ना सोचा है ||
Monday, 19 January 2015
I am..
They call me elegant, they call me pretty,
They call me canny, they call me witty,
I tell I do not fit that fashion model's size,
They say I am telling lies,
The curve of my waist and the bulk of my hips,
The charm on my cheek and the towing gravity of my eyes,
This is all that appeals the world's fancies,
I am exceptionally a woman, or merely a woman.
I walk into the room, just as cool as you please,
I have the tolerance to bear the obnoxious blames,
I have the valor to invade their reins,
I have the valor to invade their reins,
I have my stand, and I seldom bend,
I never weep in the solitude, unlike the trend,
My power is exceptional, that's how I am rational,
I am exceptionally a woman, or merely a woman.
Saturday, 3 January 2015
Thursday, 1 January 2015
Saturday, 27 December 2014
Sunday, 23 November 2014
The Sound of the Silence
The sound of the silence,
Falling as a shattered glass on the floor,
Into the loneliness of the empty hall,
Prickling on every step like sharp nails under the foot,
The sound of the silence,
Crept like a venomous snake's mighty crawl,
Echoed into a bundle of silent rolls,
Collapsed amongst self like adamant snow balls.
Sunday, 9 November 2014
Thursday, 30 October 2014
Saturday, 18 October 2014
फिर से दिवाली आयी है
फिर से दिवाली आयी है,
फिर बाज़ार में रौनक छायी है,
फिर माँ दीये जलायेंगी,
फिर पापा सीरीज़ लगायेंगे,
फिर से दिवाली आयी है,
फिर रातें दिन से ज़्यादा रौशन हो जायेगी,
फिर घर आँगन में रंगोली सजेगी,
फिर किचन से घी कि खुशबू हर कमरे में फैल जायेगी,
फिर से दिवाली आयी है,
फिर नए कपड़ों कि महक मन को बहलायेगी,
फिर नन्हे शैतान पटाखे-फुलझड़ी जलायेंगे,
फिर पकवान और तोहफे ख़ुशियाँ लायेंगे
Sunday, 12 October 2014
लफ्ज़-ओ-अल्फाज़
कुछ खयाल और कुछ हक़ीक़त मिलते हैं जमाने में,
हम बयान करते हैं उन्हें अपने रह-ओ-रस्म से अफसाने में,
ग़ुल-ए-बाज़ार में महकता है हर इक गुलाब जैसे,
शाम-ओ-सुबह चलती है हमारी ये कलम वैसे,
नज़्म-ओ-मज़मून या कभी कभार साज़-ओ-तराने में,
उम्मीद है निगार हो इस मुसंफा के ज़खीरा-ए-अल्फाज़ में,
मुख्तलिफ ज़बान में लिखने कि आज़माइश करते हैं,
रहमत हो ख़ुदा कि तो पेश करते रहेंगे नई मोसिकि कयी बार ||
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Saturday, 4 October 2014
Thursday, 2 October 2014
प्रिय मच्छर
वो गुनगुनाना तुम्हारा, वो मीठी सी तान,
छु लेती थी मेरे कानों के तार सच मान,
आते थे तुम जब नजदीक,
मांगती थी मैँ नींद कि भीख,
सुनाते थे तुम नित नए गीत,
याद है तुम्हारा वो मधुर संगीत,
जगा देते थे गहरी नींद से मुझे,
तब ही आता था चैन तुझे |
अब क्यूँ समझ ना आती आहट तुम्हारे आने की,
सज़ा कैसे दूं तुम्हें चुपके से काट जाने की,
डंक मार कर चले जाते हो, मन में ही मुस्काते हो,
रंगे हाथों पकड़ु कैसे तुम तो उड़ जाते हो,
हो गए अब तुम भी चतुर चालाक,
आ जाओ बस एक बार मेरे हाथ,
किया है मैंने तुम्हे रक्तदान,
उफ्फ... क्यूँ बन रहे तुम अनजान !
Friday, 26 September 2014
Saturday, 20 September 2014
Sunday, 7 September 2014
तुम्हारे बिना
तुम्हारे बिना मेरा जीवन,
जैसे जलेबी बिना पोहे,
जैसे मलाई बिना चाय,
जैसे कंकड़ बिना चावल,
जैसे टपकती हुई आइसक्रीम||
तुम्हारे बिना मेरा जीवन,
जैसे सास बिना सीरियल,
जैसे address बिना पिन कोड,
जैसे मेक-अप बिना हीरोइन||
तुम्हारे संग मेरा जीवन,
जैसे बारिश संग मेंढक,
जैसे हार्न संग स्कूटर,
जैसे सरकार संग भ्रष्टाचार||
तुम्हारे संग मेरा जीवन,
जैसे बाल संग टकला,
जैसे फॉल संग साड़ी,
जैसे पंखे संग हवा,
जैसे मोबाइल संग व्हाट्सएप्प (Whatsapp)|
Friday, 22 August 2014
वर्जनाएँ

मैं सब वर्जनाएँ तोड़ना चाहती हूँ,
माँ के गर्भ में खत्म नहींं होना चाहती हूँ,
माँ के गर्भ में खत्म नहींं होना चाहती हूँ,
ज़हरीले भुजंग से लिपटे तन पर,
उन हाथों को तोड़ना चाहती हूँ,
उन हाथों को तोड़ना चाहती हूँ,
पाषण सी पड़ती निगाहें मुझ पर,
उन आंखों को फोड़ना चाहती हूँ,
उन आंखों को फोड़ना चाहती हूँ,
बांधती जो गिरहें मुझ पर, कह कर इसे मुकद्दर,
उस संवेदनशून्य मनोवृत्ति का अंत देखना चाहती हूँ,
उस संवेदनशून्य मनोवृत्ति का अंत देखना चाहती हूँ,
मेरे पाकीज़ा दामन को कलंकित कर,
क्रीड़ा की वस्तु मात्र नहीं बनना चाहती हूँ,
क्रीड़ा की वस्तु मात्र नहीं बनना चाहती हूँ,
त्याग, क्षमा, ममता व देवी कि प्रतिमा का उपसर्ग जो दे मुझे,
उस अक्षम्य समाज कि वर्जनाएँ अब तोड़ना चाहती हूँ
उस अक्षम्य समाज कि वर्जनाएँ अब तोड़ना चाहती हूँ
Friday, 15 August 2014
बातें
कुछ लोग करते हैं, कुछ नही,
कुछ लंबी होती हैं, कुछ छोटी,
कुछ लंबी होती हैं, कुछ छोटी,
कुछ चकित करती हैं, कुछ हर्षित करती हैं,
कुछ ख्वाब में होती हैं, कुछ एहसास में,
कुछ ख्वाब में होती हैं, कुछ एहसास में,
कुछ आंखों से होती हैं, कुछ ज़ुबान से,
कुछ दिल से होती हैं, कुछ दिमाग से,
कुछ दिल से होती हैं, कुछ दिमाग से,
कुछ अनकही होती हैं, कुछ कहकहे लाती हैं,
कुछ हम सुनते हैं, कुछ अनसुनी करते हैं,
कुछ हम सुनते हैं, कुछ अनसुनी करते हैं,
कुछ मासूम होती हैं, कुछ कर्कश,
कुछ स्पष्ट होती हैं, कुछ दोहरी,
कुछ स्पष्ट होती हैं, कुछ दोहरी,
कुछ से समय बीतता है, कुछ समय के साथ बीत जाती हैं,
कुछ दिल को छु लेती हैं, कुछ रूह को तोड़ देती हैं,
कुछ दिल को छु लेती हैं, कुछ रूह को तोड़ देती हैं,
कुछ हो जाती हैं, कुछ यूँ ही खो जाती हैं,
कुछ सवाल छोड़ जाती हैं, कुछ जवाब बन जाती हैं...
कुछ सवाल छोड़ जाती हैं, कुछ जवाब बन जाती हैं...
Tuesday, 12 August 2014
मुसाफिर
चलते रहते हैं मुसाफिर, अपने आशियाने कि तलाश में.....क्या अचरज है,
ठहरते हैं कुछ अरसा, फिर जारी रखते हैं सफर को.....क्या अचरज है,
टकराती हैं राहें किसी मोड़ पर, मिलते हैं नसीब इत्तिफ़ाक़ से...क्या अचरज है,
हँसते हुए बढ़ जाते हैं आगे, क्योंकि मंज़िल तो सबकी मुख्तलिफ है....क्या अचरज है,
महज़ सामान है ज़स्बात, गठरी बाँधी और अगले सहर कोई और शहर...क्या अचरज है,
एतबार क्या करें किसी हमराही का, कल को ग़र गठरी उठाये हम ही चले जाए...
क्या अचरज है|
Saturday, 2 August 2014
नीर
कभी है यह निर्मल, निरभ्र, निर्झर, नटखट,
कभी खो जाता हो अकस्मात निश्चल, नीरव, निर्जल,
नदी बन कर बहता कल-कल,
तृप्त करता जन - जन कि क्षुधा बेकल,
सागर में भर जाता जैसे नीलम,
स्पर्श करता क्षितिज द्वारा नील गगन,
बह जाता नयन से हो निर्बल,
जैसे हो पावन गंगाजल,
प्रकृति के क्रोध का बनता माध्यम,
ले जाता जीवों का जीवन, भवन और आँगन,
धो देता कभी अस्थि के संग मानव पापों का भार,
गिरता धरा पर कभी बन रिमझिम बूँदों का दुलार,
देश विदेश कि सीमा से अपार,
यहां वहां बहता सनातन सदाबहार