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Monday 6 April 2015
Saturday 27 December 2014
Sunday 12 October 2014
लफ्ज़-ओ-अल्फाज़
कुछ खयाल और कुछ हक़ीक़त मिलते हैं जमाने में,
हम बयान करते हैं उन्हें अपने रह-ओ-रस्म से अफसाने में,
ग़ुल-ए-बाज़ार में महकता है हर इक गुलाब जैसे,
शाम-ओ-सुबह चलती है हमारी ये कलम वैसे,
नज़्म-ओ-मज़मून या कभी कभार साज़-ओ-तराने में,
उम्मीद है निगार हो इस मुसंफा के ज़खीरा-ए-अल्फाज़ में,
मुख्तलिफ ज़बान में लिखने कि आज़माइश करते हैं,
रहमत हो ख़ुदा कि तो पेश करते रहेंगे नई मोसिकि कयी बार ||
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Saturday 20 September 2014
Friday 15 August 2014
बातें
कुछ लोग करते हैं, कुछ नही,
कुछ लंबी होती हैं, कुछ छोटी,
कुछ लंबी होती हैं, कुछ छोटी,
कुछ चकित करती हैं, कुछ हर्षित करती हैं,
कुछ ख्वाब में होती हैं, कुछ एहसास में,
कुछ ख्वाब में होती हैं, कुछ एहसास में,
कुछ आंखों से होती हैं, कुछ ज़ुबान से,
कुछ दिल से होती हैं, कुछ दिमाग से,
कुछ दिल से होती हैं, कुछ दिमाग से,
कुछ अनकही होती हैं, कुछ कहकहे लाती हैं,
कुछ हम सुनते हैं, कुछ अनसुनी करते हैं,
कुछ हम सुनते हैं, कुछ अनसुनी करते हैं,
कुछ मासूम होती हैं, कुछ कर्कश,
कुछ स्पष्ट होती हैं, कुछ दोहरी,
कुछ स्पष्ट होती हैं, कुछ दोहरी,
कुछ से समय बीतता है, कुछ समय के साथ बीत जाती हैं,
कुछ दिल को छु लेती हैं, कुछ रूह को तोड़ देती हैं,
कुछ दिल को छु लेती हैं, कुछ रूह को तोड़ देती हैं,
कुछ हो जाती हैं, कुछ यूँ ही खो जाती हैं,
कुछ सवाल छोड़ जाती हैं, कुछ जवाब बन जाती हैं...
कुछ सवाल छोड़ जाती हैं, कुछ जवाब बन जाती हैं...
Tuesday 12 August 2014
मुसाफिर
चलते रहते हैं मुसाफिर, अपने आशियाने कि तलाश में.....क्या अचरज है,
ठहरते हैं कुछ अरसा, फिर जारी रखते हैं सफर को.....क्या अचरज है,
टकराती हैं राहें किसी मोड़ पर, मिलते हैं नसीब इत्तिफ़ाक़ से...क्या अचरज है,
हँसते हुए बढ़ जाते हैं आगे, क्योंकि मंज़िल तो सबकी मुख्तलिफ है....क्या अचरज है,
महज़ सामान है ज़स्बात, गठरी बाँधी और अगले सहर कोई और शहर...क्या अचरज है,
एतबार क्या करें किसी हमराही का, कल को ग़र गठरी उठाये हम ही चले जाए...
क्या अचरज है|
Saturday 7 June 2014
जुनून
साहिल पर बैठ क्यूं तेरी नाकामी पर अश्क बहता है,
टूटी है कश्ती तो मार ले गोता उस समंदर में,
तोड़ उसका गुरुर,भीगो दे उसे तेरे आँसुओं से,
ग़र कामयाबी का है जुनून, मुकम्मल कर तैराकी पर फ़तेह,
ग़र डूब गया तो ज़िंदगी भर का गुमान ना रहेगा,
उस पर्वर दीगर से सीना तान दलील तो कर सकेगा
Saturday 22 February 2014
मन कहे मुझे उड़ने को
मन कहे मुझे उड़ने को,
जो हो रहा है उसमें ग़ुम होने को,
जो चाहे वो हासिल हो जाए,
जो पाए वो भी ख़्वाहिश बन जाए,
हाथ उठे दुआ माँगने को,
अगले ही पल वो इबादत कुबूल हो जाए,
मन कहे मुझे उड़ने को,
जो हो रहा है उसमें ग़ुम होने को,
जो लफ्जों में बायाँ हो वो अल्फाज ही क्या,
खामोशी कि ज़ुबान में कुछ बायाँ आज किया जाए,
दूर् से ही तारों को आज ताके कुछ यूँ,
उन्हें तोड़ने कि तमन्ना पुरी हो जाए,
दुनियाँ से लड़ने के बहाने हजारों हैं,
पहले ख़ुद से ही जीत लिया जाए,
उस अक्स कि झलक कुछ यूँ मिलें,
के ख़ुद के अश्क़ धूल जाए,
मन कहे मुझे उड़ने को,
जो हो रहा है उसमें ग़ुम होने को
जो हो रहा है उसमें ग़ुम होने को,
जो चाहे वो हासिल हो जाए,
जो पाए वो भी ख़्वाहिश बन जाए,
हाथ उठे दुआ माँगने को,
अगले ही पल वो इबादत कुबूल हो जाए,
मन कहे मुझे उड़ने को,
जो हो रहा है उसमें ग़ुम होने को,
जो लफ्जों में बायाँ हो वो अल्फाज ही क्या,
खामोशी कि ज़ुबान में कुछ बायाँ आज किया जाए,
दूर् से ही तारों को आज ताके कुछ यूँ,
उन्हें तोड़ने कि तमन्ना पुरी हो जाए,
दुनियाँ से लड़ने के बहाने हजारों हैं,
पहले ख़ुद से ही जीत लिया जाए,
उस अक्स कि झलक कुछ यूँ मिलें,
के ख़ुद के अश्क़ धूल जाए,
मन कहे मुझे उड़ने को,
जो हो रहा है उसमें ग़ुम होने को